Saturday, August 6, 2016

रामधारी सिंह 'दिनकर' की "रश्मिरथी"



(Disclaimer: I am writing in Hindi for the first time in about 16 years. Please ignore the grammatical, spelling and sentence construction mistakes.)

पृष्ठ : १७६
गुडरीड्सअमेज़न

'रश्मिरथी' का ज़िक्र मुझसे सलोनी ने कुछ किताबों पर चर्चा करते समय किया था। उसने मुझे बताया था कि 'रश्मिरथी' उसकी सबसे प्रिय पुस्तक हैं और मुझसे यह भी पूछा था कि क्या वो मुझे 'रश्मिरथी' भेट कर सकती है। हिचकिचाहट में मैंने उससे इस विचार का कारण पूछा तो उसने बताया की अच्छी पुस्तकें भेट करने से हम एक दूसरे को अच्छी पुस्तकों से परिचित कराते हैं और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मैंने जब देखा कि इस किताब की कीमत कुछ ७० रुपये ही हैं, तब मैंने उसे इस किताब को मुझे भेट करने को कहा।

किताब कर्ण पर आधारित होने की बात सलोनी ने मुझे बताई थी। लेकिन जब मैंने किताब पढ़ने की कोशिश की, तब मुझे ऐसा समझ आया कि दिनकरने उसे काव्य रूप में लिखा हैं। इतना ही नहीं, पुस्तक की पहली पंक्ति में ही "पुनीत" और "अनल" जैसे कठिन शब्दों को देख कर मैं थोड़ा डर गया और किताब को कुछ दिनों तक पढ़ा ही नहीं। कहते हैं की सही समय आने पर कुछ किताबे स्वयं तुम्हे अपनी ओर आकर्षित करती हैं और उन्हें पढ़ने पर मजबूर कर देती हैं। "रश्मिरथी" को लेकर मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ। मैं काम के सिलसिले में सफर कर रहा था। मेरे पास पढ़ने के लिए "रश्मिरथी" को छोड़ कर कुछ नहीं था। मैंने कठिन शब्दों को नजरअंदाज कर के पुस्तक पढ़ना शुरू किया। हवाईसफर के पहले चरण में मैंने लगभग आधी किताब पढ़ ली थी। इतना ही नहीं, मैं बची हुई किताब को पढ़ने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था।

किताब में कर्ण की कथा विषम तरह से बताई गयी हैं। कथा पूर्ण न होते हुए उसके केवल मुख्य अंश ही बताए गए हैं। इनमें कर्ण का दुर्योधन से द्रोणाचार्य द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में पहली बार मिलना, परशुराम का कर्ण की जांघ पर सोना, कृष्ण और कुंती का कर्ण  संभाषण, इंद्र का कर्ण से कवच-कुंडल मांगने का किस्सा और कुरुक्षेत्र की लढाई शामिल हैं। इनमें से सबसे भावुक कर देने वाला किस्सा पुस्तक के तीसरे सर्ग में बताया गया हैं। यह भाग कर्ण और कृष्ण के बीच के संवाद का वर्णन करता हैं। कृष्ण कर्ण से यह विनंती करने आये हैं कि कर्ण दुर्योधन से कहे कि वो पांडवों से युद्ध करने की हठ छोड़ दे। इस सर्ग में कर्ण के द्वारा उसकी बतायी गयी पृष्ठभूमि काफी भावुक कर देने वाली हैं। मैं, हर साल, महाभारत पर आधारित कम से कम एक किताब पढता हूँ। लेकिन काफी कम किताबे दिनकर की इस रचना की तरह भावनात्मक जोड़ स्थापित कर पाती हैं। इसके अलावा, युद्ध में अर्जुन को पराजित करने का कर्ण के उत्साह का विवरण मुझे सिर्फ "रश्मिरथी" में पढ़ने को मिला।

इस पुस्तक को पढ़ने में मुझे एक अद्वितीय अनुभव मिला। मैंने पाठशाला ख़त्म होने के बाद प्रथम ही कोई हिंदी पुस्तक पढ़ी। उसपर एक काव्यरचना पढ़ना काफी अलग लग रहा था। 'रश्मिरथी' रामधारी सिंह 'दिनकर' का यह सामर्थ्य दिखाती हैं जो वाचक को काफी दिनों तक पुस्तक के बारे में सोचने पर मजबूर कर दे। कर्ण की कथा न केवल दानशूरता की कहानी हैं, बल्कि वह ये भी एहसास कराती हैं कि कुछ लोगों को इस दुनिया में केवल सहनशीलता का प्रतीक बनने के लिए भेजा गया हैं।

वैसे तो यह किताब कई बार पढ़ने लायक है पर पुस्तक में यदि कठिन शब्दों के अर्थ दिए होते तो पढ़ने में एक पूर्णता आती। चूँकि किताब महाभारत पर आधारित हैं, चतुर्थ सर्ग में ईसा और गांधी का उल्लेख अयोग्य लगता हैं।

'रश्मिरथी' पढ़ने के बाद मुझे इस बात का भी एहसास हुआ कि भारतीय अंग्रेज़ी लेख़क (खासकर नए) चाहे जैसे भी हों, लेकिन प्रादेशिक भाषाओं वाले लेख़क सच में पढ़ने योग्य हैं। मैं दिनकर से इतना प्रभावित हूँ कि मैं जल्द ही उनके द्वारा लिखित 'कुरुक्षेत्र' भी ज़रूर पढूंगा।

कुछ पंक्तिया मुझे ख़ास पसंद आयी जिन्हें मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:

१. जब दुर्योधन कृष्ण से कहता हैं कि वह पांडवों से युद्ध कर के ही रहेगा:

जब नाश मनुज पर छाता है, 
पहले विवेक मर जाता है। 


२. जब कर्ण कृष्ण से कहता हैं कि वो युद्ध को नहीं रोक सकता:

"तुच्छ है, राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिन्ता प्रभूत (ज्यादा), अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य (चकाचौंध), कुछ क्षण विलास।
पर, वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है!"


३. जब इंद्र कर्ण से कवच कुंडल मांगने आते हैं:

पर, जाने क्यों, नियम एक अदभूत जग में चलता है, 
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है। 
हरियाली है जहाँ, जलद (वर्षा) भी उसी खण्ड के वासी,
मरू (रेगिस्तान) की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।   



४. कुरुक्षेत्र के युद्ध के बारे में:

ये तो साधन के भेद, किन्तु,
भावों में तत्व नया क्या है?
क्या खुली प्रेम की आँख अधिक?
भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है?
झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे, 
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर-बाहर तन सँवर चुका, 
मन अभी सँवरना बाकी है। 


५. कुरुक्षेत्र के युद्ध की रणनीतियाँ बताते हुए:

है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो 
जीवन भर चलने में है। 
फैला कर पथ पर स्निग्ध (सौम्य) ज्योति 
दीपक समान जलने में है।
यदि कहे विजय, तो विजय प्राप्त 
हो जाती परतापी को भी, 
सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;
मिल जाते है पापी को भी।


६. साधन से ज्यादा लक्ष्य पर ध्यान होने के बारे में बताते हुए:

साधना को भूल सिद्धि पर जब 
टकटकी हमारी लगती है, 
फिर विजय छोड़ भावना और 
कोई न हृदय में जगती है। 
तब जो भी आते विघ्न रूप, 
हो धर्म, शील या सदाचार, 
एक ही सदॄश हम करते हैं 
सबके सिर पर पाद - प्रहार। 

उतनी भी पीड़ा हमें नहीं 
होती है उन्हें कुचलने में। 
जितनी होती है रोज कंकडों 
के ऊपर हो चलने में। 
सत्य ही उर्ध्व (ऊपर देखने वाले) - लोचन (आँखे) कैसे 
नीचे मिट्टी का ज्ञान करे?
जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा, 
छोटी बातों का ध्यान करे?

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